Tuesday, April 18, 2023

NCERT Class 10th Hindi Sanchayan Chapter 2 Sapano ke se Din

 

NCERT Class 10th Hindi Sanchayan Chapter 2 Sapano ke se Din by Gurdayal Singh

एनसीईआरटी कक्षा 10वीं पाठ 2 सपनों के से दिन (लेखक:गुरदयाल सिंह)  

1.सपनों के से दिन पाठ का सारांश :

सपनों के से दिन पाठ के लेखक गुरदयाल सिंह इस  संस्मरण में अपने बचपन को याद करते हैं । साथ खेलने वाले बच्चों को जिनकी आर्थिक दशा कुछ बेहतर न थी। माता -पिता अपने मूल निवास मंडी या राजस्थान से दूर रोजी रोटी के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं और बच्चों की कोई खास देखभाल न थी। वे दिन भर बाहर लकड़ियों के ढेर में खेल रहे होते थे और चोट लगने पर सहानुभुति की बजाय माँ , बहन या गुस्सैल पिता के द्वारा अकसर पीटे जाते हैं । फ़िर भी वे फ़िर से खेलने चले जाते थे। बच्चों की पढ़ाई के प्रति अधिकतर ये परिवार उदासीन ही थे।  अज्ञानता के कारण आर्थिक रूप से सक्षम परिवार भी बच्चों की शिक्षा के प्रति उदासीन ही थे। शिक्षकों  के द्वारा समझाए जाने पर वे जवाब देते कि हमें कौन सा इसे तहसीलदार लगवाना है? इसी से उनका पढ़ाई के प्रति उदासीन रवैया समझा जा सकता है। 

स्कूल के दिन लेखक गुरदयाल को कुछ ज्यादा भले न लगे थे। स्कूल में लगे सुंदर फूलों की सुगंध की मनमोहक याद उन्हें याद थी जिन्हें कभी-कभी वे चपड़ासी से नज़र बचा कर तोड़कर रख लेते थे। बड़े होने पर भी पाठशाला क कुछ ज्याद अच्छे अनुभ्हव उन्हें याद न रहा। स्कूल के नाम पर नई कॉपियों और पुरानी किताबें उन्हें याद आती हैं जिनकी अजीब सी बास उन्हें उदास कर देती थी । लेखक इसका कारण मास्टरों का डर, और मार-पीट मानते हैं। इसी सिलसिले में लेखक गर्मियों की छुट्टियों को याद करते हैं  जो मौज-मस्ती भरे दिन होते थे। लेखक अकसर अपनी ननिहाल छुट्टियाँ बिताते थे जहाँ का तालाब में नहाना, नानी का ढेर सारा प्यार-दुलार , दूध-दही खिलाना और नानी द्वारा ममेरे भाइयों पर विशिष्ट ओहदा मिलने पर खुश होते। जिस साल ननिहाल न जा पाते उस साल अपने घर के पास के तालाब में ही छुट्टियाँ बिताते। 

छुट्टियों के पहले दिन खूब मस्ती भरे होते किंतु बाद के दिनों में ज्यों-ज्यों स्कूल खुलने के दिन पास आते, लेखक  को होमवर्क पूरा न होने का डर सताने लगता। किंतु अंत तक तो दिन तेज़ी से भागने लगते, हालांकि छुट्टियों का काम पूरा न हुआ होता। ऐसे में अध्यापकों द्वारा की जाने वाली मार-पीट का डर सवार होने लगता। इन क्षणों में लेखक खुद को ओमा जैसा बनाना चाहते थे। ओमा उन्हीं के स्कूल का एक लड़का था जो अपनी विशेष शारीरिक संरचना और बड़े सिर के आकार, छोटी कद-काठी  के कारण ’रेल बम्बा ’ नाम से जाना जाता था। ओमा अपने सिर से मारने और लड़ाई-झगड़े में लगा रहने वाला लड़का था। जो स्कूल के मास्टरों के द्वारा दिए गए गृहकार्य को करने के बजाए  मार खा लेना सस्ता सौदा समझता था। ओमा ऐसे क्षणों में लेखक का नेता होता और वह उसके जैसे मार खाने की हिम्मत वाला होने की सोचता। 

यादों के गलियारे में घुमते हुए लेखक अपने छोटे से स्कूल को याद करते हैं जो एच आकार में बना हुआ था। विद्यालय के अधिकांश अध्यापक बच्चों को छोटी-छोटी बातों  और गलतियों के लिए मारा पीटा करते । इनमें लेखक विशेषकर पीटी मास्टर प्रीतम चंद से  प्रभावित दिखते हैं। प्रीतम चंद परेड के समय छोटी सी गलती करने पर छात्रों को घुड़की देते और ठुड्डों से मारते थे। पीटी मास्टर के जैसा सख्त अध्यापक न किसी ने देखा था और न सुना था। परेड के समय थोड़ी सी गलती होते ही  वह बच्चों की चमड़ी उधेड़ देने वाले मुहावरे को प्रत्यक्ष कर देते। 

इसके उलट विद्यालय के हेडमास्टर श्री मदन मोहन शर्मा जी शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। अनुशासन में चलते लड़्कों को देख उनका गोरा चेहरा खिल जाता। वे किसी तरह की मारपीट न करते थे। यदि कभी-कभार  गुस्सा होकर वे बच्चों को थप्पड़ मार देते तो वह बच्चों को भाई भीखा की नमकीन पापड़ी जैसा मजेदार लगता।   

हेडमास्टर शर्मा किसी धनाढ्य परिवार के लड़के को उसके घर जाकर पढ़ाया करते थे जो लेखक से एक साल आगे की कक्षा में था। हर साल वे लेखक के लिए उसकी पुरानी पुस्तकें ला दिया करते थे। लेखक के मुताबिक वे इसीलिए आगे की पढ़ाई कर सके थे क्योंकि यदि पुस्तकों में भी खर्च करना पड़ता जो कि उस समय के अनुसार एक दो रुपया होता तो शायद उनकी पढ़ाई-तीसरी चौथी श्रेणी में ही छुड़ा  दी जाती । इससे मालूम होता  है कि हैड मास्टर जी  बड़े  सहृदय थे और  बच्चों की आर्थिक और व्यक्तिगत समस्याओं से भी परिचित थे। 

हालांकि लेखक गुरदयाल के लिए स्कूल कभी भी भाग-भाग कर जाने वाली जगह न थी किंतु जब  स्कूल परेड होती  और एक साथ सारे बच्चे कदमताल करते, तब लेखक स्वयं को फ़ौजी की तरह महसूस करते। पीटी मास्टर जब खुश होकर शाबाश कहते तो लेखक को महसूस होता मानो फ़ौज के सारे तमगे जीत लिए हों। पीटी मास्टर से शाबाशी मिलना लेखक के लिए चमत्कार सा था। इसी सिलसिले में लेखक तत्कालीन राजनैतिक स्थिति को भी परिचय देते हैं । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाभा रियासत के राजा को गिरफ़्तार कर तमिलनाडु कोडाएकेनाल भेज दिया गया था। जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे को अंग्रेजों ने पढ़ाने के लिए  विलायत भेज दिया । बिना राजा के नाभा रियास्त पर अंग्रेजी शासन का ही अधिकार हो गया था। अंग्रेजी फ़ौज लोगों को विभिन्न तरीके नौटंकी  आदि से विज्ञापन कर लोगों को औज में भरती के लिए प्रेरित करने के हथकंडे अपनाती थी ताकि लोग सेना की ओर आकर्षित हों । फ़िर भी नाभा रियासत के लोग उनकी फ़ौज में भरती न हुए। 

 इन्हीं फ़ौजियों के शान बान देखकर लेखक भी परेड के समय खुद को फ़ौजी सा अनुभव करते। ऐसे अवसर पर स्कूल इन्हें अच्छा भी लगता।हालांकि मास्टर प्रीतम चंद की मार से वे न केवल डरते थे अपितु उनसे नफ़रत भी करते थे। एक बार जब प्रीतम चंद बच्चों को फ़ारसी के शब्द रूप न याद करने पर कठोर शारीरिक दंड दे रहे थे तभी हैड मास्टर शर्मा वहाँ आ गए। इस प्रकार छोटे बच्चों को सजा  देते हुए देख कर वह बहुत गुस्सा हो गए और उन्होंने मास्टर प्रीतम चंद को तुरंत निलंबित कर दिया। इसके बाद उनका स्कूल आना बन्द हो गया,  बावजूद इसके लेखक के मन से उस पीरियड में  मास्टर प्रीतम चंद के आने का डर समाप्त न हुआ। 

इस घटना के बाद लेखक को पीटी मास्टर का एक नया ही रूप प्रकट हुआ। वे बाजार में कमरा लेकर पहले की ही तरह आराम से रह रहे थे। वे अपने पालतू तोतों से प्यार भरी बातें करते थे और उन्हें भीगे हुए बादाम की गिरी खिलाते थे।एक कठोर व्यवहार के व्यक्तित्व के व्यक्ति को तोतों से प्यार भरी बातें करते देखना लेखक के लिए आश्चर्य का विषय था।  

2.सपनों के से दिन पाठ के बोध प्रश्न : 

प्रश्न 1 - कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती-पाठ के किस अंश से यह सिद्ध होता है?

उत्तर - कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती। यह बात लेखक के बचपन की एक घटना से सिद्ध होता है -लेखक के बचपन के ज्यादातर साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो उनकी बातों को बहुत कम ही समझ पाता था और उनके कुछ शब्दों को सुन कर तो लेखक को हँसी आ जाती थी। परन्तु जब सभी खेलना शुरू करते तो सभी एक-दूसरे की बातों को बहुत अच्छे से समझ लेते थे। उनका व्यवहार एक दूसरे के लिए एक जैसा ही रहता था।

 प्रश्न 2 - पीटी साहब की 'शाबाश' फ़ौज के तमगों-सी क्यों लगती थी? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर - मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के 'पीटी' साहब थे। वे बहुत ही क्रोधी स्वभाव के थे। वे लड़कों की पंक्तियों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कि कौन सा लड़का पंक्ति में ठीक से नहीं खड़ा है। सभी लड़के उस 'पीटी' से बहुत डरते थे, क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा था और न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरे पाँव की पिंडली खुजलाने लगता, तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और 'खाल खींचने' (कड़ा दंड देना, बहुत अधिक मारना-पीटना) के मुहावरे को सकरके दिखा देते। यही कारण था कि जब स्कूल में स्काउटिंग का अभ्यास करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता, तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उस समय लड़कों को ऐसा लगता मानों उनकी बहुत बड़ी तरक्की हो गई हो ।उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। 

प्रश्न 3 - नयी श्रेणी में जाने और नयी कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन क्यों उदास हो उठता था?

उत्तर - हर साल जब लेखक अगली कक्षा में प्रवेश करता तो उसे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं थी।  लेखक के घर के आर्थिक हालात अच्छे नहीं थे ।उसके स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी एक बहुत धनी लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता था तो शर्मा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पुस्तकें लेखक के लिए ले आते थे। उसे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती थी कि उसका मन बहुत उदास होने लगता था। आगे की कक्षा की पढ़ाई  मुश्किलें और नए मास्टरों की मार-पीट का डर  से लेखक का मन उदास हो जाता । साथ ही अध्यापकों  द्वारा  ये उम्मीद करना कि जैसे बड़ी कक्षा के साथ-साथ लेखक सर्वगुण सम्पन्न या हर क्षेत्र में आगे रहे वाला हो गया हो। यदि लेखक और उसके साथी उन अध्यापकों की आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ अध्यापक तो हमेशा ही विद्यार्थियों की 'चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते' थे। इन सब बातों से लेखक का बालमन उदास हो जाता था ।

 प्रश्न 4 - स्काउट परेड करते समय लेखक अपने को महत्वपूर्ण 'आदमी' फ़ौजी जवान क्यों समझने लगता है?

उत्तर - जब लेखक धोबी द्वारा धोई गई वर्दी और पालिश किए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर स्काउटिंग की परेड करते तो लगता कि वे भी फौजी ही हैं। मास्टर प्रीतमसिंह जो लेखक के स्कूल के पीटी थे, वे लेखक और उसके साथियों को परेड करवाते और मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे। फिर जब वे राइट टर्न या लेफ्ट टर्न या अबाऊट टर्न कहते तो सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण 'आदमी' हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है, अर्थात लेखक कहना चाहता है कि सभी विद्यार्थी अपने-आप को फौजी समझते थे।

 प्रश्न 5 - हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को क्यों मुअत्तल कर दिया?

उत्तर - मास्टर प्रीतमचंद लेखक की चौथी कक्षा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी मास्टर प्रीतमचंद को लेखक की कक्षा को पढ़ते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने उन्हें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आज्ञा दी कि कल इसी घंटी में केवल जुबान के द्वारा ही सुनेंगे। दूसरे दिन मास्टर प्रीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मास्टर जी ने गुस्से में चिल्लाकर सभी विद्यार्थियों को कान पकड़कर पीठ ऊँची रखकर मुर्गा बनने को कहा। जब लेखक की कक्षा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी स्कूल में नहीं थे। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा, वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि उन्होंने पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को सहन नहीं किया और वह भड़क गए थे। छात्रों को अकारण शारीरिक दंड देने के वज़ह से हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को  मुअत्तल कर दिया।

प्रश्न 6 - लेखक के अनुसार उन्हें स्कूल खुशी से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और क्यों उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगने लगा?

उत्तर - बचपन में लेखक को स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था परन्तु जब मास्टर प्रीतमसिंह मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे और सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण 'आदमी' हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है । स्काउटिंग करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। यह शाबाशी लेखक को उसे दूसरे अध्यापकों से मिलने वाले 'गुड्डों'(good) से भी ज्यादा अच्छा लगता था। लेखक के अनुसार, यही कारण था कि उन्हें स्कूल खुशी से भागे जाने की जगह न लगने पर भी,  स्काउटिंग और सैनिकों की तरह परेड करते समय  स्कूल जाना अच्छा लगने  लगा था

प्रश्न 7 - लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुटियों में मिले काम को पूरा करने के लिए क्या-क्या योजनाएँ बनाया करता था और उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में किसकी भाँति 'बहादुर' बनने की कल्पना किया करता था?

उत्तर - जैसे-जैसे लेखक की छुट्टियों के दिन ख़त्म होने लगते तो वह दिन गिनने शुरू कर देता था। हर दिन के ख़त्म होते-होते उसका डर भी बढ़ने लगता था।  अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है और एक दिन में कितना काम करना है यह सोचना शुरू कर देता। जब लेखक ऐसा सोचना शुरू करता तब तक छुट्टियों का सिर्फ एक ही महीना बचा होता। एक-एक दिन गिनते-गिनते खेलकूद में दस दिन और बीत जाते। फिर वह अपना डर भगाने के लिए सोचता कि दस क्या, पंद्रह सवाल भी आसानी से एक दिन में किए जा सकते हैं। जब ऐसा सोचने लगता तो ऐसा लगने लगता जैसे छुट्टियाँ कम होते-होते भाग रही हों। दिन बहुत छोटे लगने लगते थे।  लेखक ओमा की तरह जो ठिगने और बलिष्ट कद का उद्दंड लड़का था उसी की तरह बनने की कोशिश करता क्योंकि वह छुट्टियों का काम करने के बजाय अध्यापकों की पिटाई को अधिक 'सस्ता सौदा' समझता था। यद्यपि लेखक पिटाई से बहुत डरते थे किंतु ऐसे समय में ओमा ही लेखक का नेता हुआ करता और वे उसके जैसे 'बहादुर' बनने की कल्पना करने लगता था। 

प्रश्न 8 - पाठ में वर्णित घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर - लेखक ने कभी भी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में मुस्कुराते या हँसते नहीं देखा था। उनके जितना सख्त अध्यापक किसी ने पहले नहीं देखा था। उनका छोटा कद, दुबला-पतला परन्तु पुष्ट शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यानि चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूते-ये सभी चीज़े बच्चों को भयभीत करने वाली होती थी। उनके जूतों की ऊँची एड़ियों के नीचे भी खुरियाँ लगी रहतीं थी। अगले हिस्से में, पंजों के नीचे मोटे सिरों वाले कील ठुके होते थे। वे अनुशासन प्रिय थे। यदि कोई विद्यार्थी उनकी बात नहीं मानता तो वे उसकी खाल खींचने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। वे बहुत स्वाभिमानी भी थे क्योंकि जब हेडमास्टर शर्मा ने उन्हें निलंबित कर के निकाला तो वे गिड़गिड़ाए नहीं, चुपचाप चले गए । बाद में लेखक को पता चला कि पहले की ही तरह आराम से रह रहे थे। वे अपने अपने पालतू तोतों से प्यार भरी बातें करते थे और उन्हें  बादाम की गिरी खिलाते थे।एक कठोर व्यवहार के व्यक्तित्व के व्यक्ति को तोतों से प्यार भरी बातें करते देखना लेखक के लिए आश्चर्य का विषय था। कुल मिला कर पी.टी. सर  का चरित्र कर्तव्यनिष्ठा , कठोर अनुशासनप्रिय किंतु  सरल सुहृदय  व्यक्तित्व का मिला –जुला समन्वय  दिखाई पड़ता था।

 प्रश्न 9 - विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियों और वर्तमान में स्वीकृत मान्यताओं के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर - विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में जिन युक्तियों को अपनाया गया है उसमें मारना-पीटना और कठोर दंड देना शामिल हैं।  तीसरी और चौथी कक्षाओं के छात्रों को भी थोड़ा सा अनुशासन भंग करने पर  कठोर सजा मिलती थी ।  इसके साथ-साथ ही अच्छे कामों के लिए प्रोत्साहित करने के लिए शाबाशी भी मिलती थी ।उस समय यह विचारधारा थी कि विद्यार्थी जीवन में कठोर अनुशासन से जीवन की नींव सुदृढ़ बनेगी , किंतु इन कारणों की वजह से बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, अथवा स्कूल जाना बंद कर देते थे । परन्तु वर्तमान में इस तरह मारना-पीटना और कठोर दंड देना बिलकुल मना है। आजकल के अध्यापकों को सिखाया जाता है कि बच्चों की भावनाओं को समझा जाए, उसने यदि कोई गलत काम किया है तो यह देखा जाए कि उसने ऐसा क्यों किया है। उसे उसकी गलतियों के लिए दंड न देकर, गलती का एहसास करवाया जाए। तभी बच्चे स्कूल जाने से डरेंगे नहीं, बल्कि ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाएँगे।शिक्षा में रोचक तरीके अपना कर पढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं । मेरी दृष्टि में नया तरीका ज्यादा उचित है।

प्रश्न 10  : बचपन की यादें मन को गुदगुदाने वाली होती हैं विशेषकर स्कूली दिनों की। अपने अब तक के स्कूली जीवन की खट्टी-मीठी यादों को लिखिए।

उत्तर - छात्र अपने अनुभव स्वयं लिखें ।

प्रश्न 11 - प्रायः अभिभावक बच्चों को खेल-कूद में ज्यादा रूचि लेने पर रोकते हैं और समय बर्बाद न करने की नसीहत देते हैं। बताइए -

(क) खेल आपके लिए क्यों जरुरी है?
उत्तर - खेल जितना मनोरंजक होता है उससे कही अधिक सेहत के लिए आवश्यक होता है। कहा भी जाता है कि 'स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का वास होता है।' बच्चों का तन जितना अधिक तंदुरुस्त होगा, उनका दिमाग उतना ही अधिक तेज़ होगा। साथ-साथ खेल से भाईचारे की भावना का विकास होता है, समूह में खेलने से सामाजिक भावना बढ़ती है और साथ-ही-साथ प्रतिस्पर्धा की भावना का भी विकास होता है । सबसे बड़ी बात खेलने में जो मजा आता है उसकी किसी और आनंद से तुलना नहीं की जा सकती। अपने दोस्तों के साथ बिताये खेल के क्षण अमूल्य होते हैं। 
(ख) आप कौन से ऐसे नियम-कायदों को अपनाएँगे जिनसे अभिभावकों को आपके खेल पर आपत्ति न हो?

उत्तर – जीवन  में  समन्वय बहुत आवश्यक है ।जितना खेल जीवन में जरुरी है, उतने ही जरुरी जीवन में बहुत से कार्य होते हैं जैसे- पढाई आदि। यदि खेल स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, तो पढाई भी आपके जीवन में कामयाबी और आनंद  के लिए बहुत आवश्यक है। यदि हम अपने खेल के साथ-साथ अपने जीवन के अन्य कार्यों  और पढ़ाई को भी उसी लगन के साथ पूरा करते जाएँ जिस लगन के साथ हम अपने खेल को खेलते हैं तो अभिभावकों को कभी भी खेल से कोई आपत्ति नहीं होगी। इसलिए  हम खेल और पढ़ाई के बीच समन्वय का मार्ग अपनाएंगे ।

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